प्राण त्यागने से पहले भीष्म पितामह ने इस विधि से की थी भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति -
इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा
भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि ।
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाह: ॥ १ ॥ अभी तक मैं जो सोचता, जो अनुभव करता तथा जो चाहता था, वह विभिन्न विषयों तथा वृत्तियों के अधीन था, किन्तु अब मुझे उसे परम शक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण में लगाने दो। वे सदैव आत्मतुष्ट रहनेवाले हैं, किन्तु कभी-कभी भक्तों के नायक होने के कारण, इस भौतिक जगत में अवतरित होकर दिव्य आनन्द-लाभ करते हैं, यद्यपि यह सारा भौतिक जगत उन्हीं के द्वारा सृजित है। १। त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं रविकरगौरवराम्बरं दधाने । वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या ॥ २ ॥ श्रीकृष्ण अर्जुन के घनिष्ठ मित्र हैं। वे इस धरा पर अपने दिव्य शरीर सहित प्रकट हुए हैं, जो तमाल वृक्ष सदृश नीले रंग का है। उनका शरीर तीनों लोकों (उच्च, मध्य तथा अघोलोक) में हर एक को आकृष्ट करनेवाला है। उनका चमचमाता पीताम्बर तथा चन्दनचर्चित मुखकमल मेरे आकर्षण का विषय बने और मैं किसी प्रकार के फल की इच्छा न करूँ। २Bhishma stuti by Indresh Ji Upadhyay lyrics
युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक्- कचलुलितश्रमवार्यलङ्कृतास्ये । मम निशितशरैर्विभिद्यमान- त्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ॥ ३ ॥ युद्धक्षेत्र में (जहाँ मित्रतावश श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ रहे थे) भगवान् कृष्ण के लहराते केश घोड़ों की टापों से उठी धूल से धूसरित हो गये थे तथा श्रम के कारण उनका मुख-मण्डल पसीने की बूँदों से भीग गया था। मेरे तीक्ष्ण बाणों से बने घावों से इन अलंकरणों की शोभा उन्हें अच्छी लग रही थी। मेरा मन उन्हीं श्रीकृष्ण के पास चले।३ सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य । स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा हृतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु ॥ ४ ॥ अपने मित्र के आदेश का पालन करते हुए, भगवान् श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन तथा दुर्योधन के सैनिकों के बीच में प्रविष्ट हो गये और वहाँ स्थित होकर उन्होंने अपनी कृपापूर्ण चितवन से विरोधी पक्ष की आयु क्षीण कर दी। यह सब शत्रु पर उनके दृष्टिपात करने मात्र से ही हो गया। मेरा मन उन कृष्ण में स्थिर हो।४ व्यवहितपृतनामुखं निरीक्ष्य स्वजनवधाद्विमुखस्य दोषबुद्ध्या । कुमतिमहरदात्मविद्यया य- श्चरणरति: परमस्य तस्य मेऽस्तु ॥ ५ ॥ जब युद्धक्षेत्र में अर्जुन अपने समक्ष सैनिकों तथा सेनापतियों को देखकर अज्ञान से कलुषित हो रहा लग रहा था, तो भगवान् ने उसके अज्ञान को दिव्य ज्ञान प्रदान करके समूल नष्ट कर दिया। उनके चरणकमल सदैव मेरे आकर्षण के लक्ष्य बने रहें।५
प्राण त्यागने से पहले भीष्म पितामह ने इस विधि से की थी भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति -
स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा- मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थ: । धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गु- र्हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीय: ॥ ६ ॥ मेरी इच्छा को पूरी करते हुए तथा अपनी प्रतिज्ञा तोडक़र, वे रथ से नीचे उतर आये, उसका पहिया उठा लिया और तेजी से मेरी ओर दौड़े, जिस तरह कोई सिंह किसी हाथी को मारने के लिए दौड़ पड़ता है। इसमें उनका उत्तरीय वस्त्र भी रास्ते में गिर गया।६ शितविशिखहतो विशीर्णदंश: क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे । प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्द: ॥ ७ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं, वे मेरे अनन्तिम गंतव्य हों। युद्ध-क्षेत्र में उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया, मानो वे मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध हो गये हों। उनका कवच छितरा गया था और उनका शरीर खून से सन गया था।७ विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये । भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षो- र्यमिह निरीक्ष्य हता गता: स्वरूपम् ॥ ८ ॥ मृत्यु के अवसर पर मेरा चरम आकर्षण भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति हो। मैं अपना ध्यान अर्जुन के उस सारथी पर एकाग्र करता हूँ, जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए थे और बाएँ हाथ से लगाम की रस्सी थामे और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने के प्रति अत्यंत सावधान थे। जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में उनका दर्शन किया, उन सबों ने मृत्यु के बाद अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया। ललितगतिविलासवल्गुहास- प्रणयनिरीक्षणकल्पितोरुमाना: । कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धा: प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्व: ॥ ९ ॥ मेरा मन उन भगवान् श्रीकृष्ण में एकाग्र हो, जिनकी चाल तथा प्रेम भरी मुस्कान ने व्रजधाम की रमणियों (गोपियों) को आकृष्ट कर लिया। [रास लीला से] भगवान् के अन्तर्धान हो जाने पर गोपिकाओं ने भगवान् की लाक्षणिक गतियों का अनुकरण किया।९
मुनिगणनृपवर्यसङ्कुलेऽन्त: सदसि युधिष्ठिरराजसूय एषाम् । अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो मम दृशिगोचर एष आविरात्मा ॥ १० ॥ महाराज युधिष्ठिर द्वारा सम्पन्न राजसूय यज्ञ में विश्व के सारे महापुरुषों, राजाओं तथा विद्वानों की एक महान् सभा हुई थी और उस सभा में सबों ने श्रीकृष्ण की पूजा परम पूज्य भगवान् के रूप में की थी। यह सब मेरी आँखों के सामने हुआ और मैंने इस घटना को याद रखा, जिससे मेरा मन भगवान् में लगा रहे।१० तमिममहमजं शरीरभाजां हृदि हृदि धिष्ठितमात्मकल्पितानाम् । प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकं समधिगतोऽस्मि विधूतभेदमोह: ॥ ११ ॥ अब मैं पूर्ण एकाग्रता से एक ईश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान कर सकता हूँ, जो इस समय मेरे सामने उपस्थित हैं, क्योंकि अब मैं प्रत्येक के हृदय में, यहाँ तक कि मनोधर्मियों के हृदय में भी रहनेवाले उनके प्रति द्वैत भाव की स्थिति को पार कर चुका हूँ। वे सबों के हृदय में रहते हैं। भले ही सूर्य को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव किया जाय, किन्तु सूर्य तो एक ही है।११
Bhishma stuti by Indresh Ji Upadhyay lyrics